मंगलवार, मई 29, 2012

पुराने यारों की याद..............

जब पुराने यारों की याद आती है
इक अजीब सी कसक कसकसाती है

वो चौराहों का हो-हल्ला गूंज जाता है
 वो नुक्कड़ के मिश्रा की चाय याद आती है

कालेज की दीवारों पर लिखे हैं नाम अब तक
निकलता हूँ जब उधर से निगाहें दौड़ जातीं है

पुरानी डायरी के पन्नों पर लिखी मेरी गज़लों से
कालेज के बरामदे मे टहलते दोस्तों की आवाज़ आती है

खनकती है सुषमा और अनुश्री चहकती है
संदीप,भास्कर और अनंत की तिकड़ी मुसकुराती है

पहले तो चले आते थे मेरे यार, मेरे साथ घर तक
अब तो महज मेरे साथ मेरी तनहाई आती है

तुम्हारा--अनंत

एक अजब ज़ंग लड़ता हूँ,..........

मैं रात-ओ-दिन एक अजब ज़ंग लड़ता हूँ
मैं अपने लहू से अपनी गजल गढ़ता हूँ

वो बेवफा हो गया तो क्या हुआ ''अनंत''
मैं उसके खातिर अब तलक दिल मे वफा रखता हूँ

वो मिलता है तो मुँह पर दुआ और दिल मे मैल होती है
मैं जब भी मिलता है ,दिल आईने सा सफा रखता हूँ

शायद यही वजह है जो इस घाटे के दौर मे भी
मैं यारों की दौलत और मोहब्बत का नफ़ा रखता हूँ

जला है जब से नशेमान मेरा मैं नशे मे हूँ
अब हर वक़्त बस मैं इंसानियत का नशा रखता हूँ

तुम्हारा---अनंत

सच तो ये है .............

सच तो ये है कि हर कोई सच्चाई से डरता है
अंधेरी राहों पर आदमी परछाईं से डरता है

एक बेनाम से दुराहे पर खड़ा है हर कोई
एक तरफ मौत से डरता है, एक तरफ रुसवाई से डरता है

जो मुफलिस है ''अनंत'' और खुद्दार भी है
वो कुछ मांगन से पहले मनाही से डरता है

जवाब दे सकता है एक मजलूम भी सितमगर को
पर वो मजबूर अपने घर की तबाही से डरता है

खून बहता है जिसकी रगों मे, और जो जिंदा भी है
वो शेर की औलाद कब लड़ाई से डरता है

बेगुनाह और पाक -ओ- साफ है जो शक्स
रोज़-ए-हश्र पर वो कहाँ किसी की गवाही से डरता है

डरा सकता नहीं कोई सच्चों को दुनिया में
जो सच्चा इंसान है वो फकत खुदा की खुदाई से डरता है

तुम्हारा--अनंत 

उसका असर .....

उसका असर कुछ इस कदर हो गया है
कि असर का असर भी बेअसर हो गया है

इस लूटे हुए दिल को कोई दिल क्यों कहेगा
ये दिल तो एक उजड़ा शहर हो गया है

राहें और मंजिल जिसकी दोनों ही गुम हैं
वो मदमस्त राही बेफ़िकर हो गया है

जो समंदर की सोहबत में रह करके लौटा
वो थोड़ा सा साहिल, थोड़ा लहर हो गया है

ये बद्हवास ख्वाबों की दौड़ थमती नहीं क्यों
आज आदमी खुद एक सफ़र हो गया है

तुमने लालच से उसे ऐसा मैला किया है
कि जो पानी था अमृत, वो जहर हो गया है

 तुम्हारा--अनंत 

उसकी आँखों के मकतब मे.............

उसकी आँखों के मकतब मे  मोहब्बत पढ़ के आया हूँ
मैं कतरा हूँ दरिया का, सहरा से लड़ के आया हूँ

काटा था पर सैयाद ने कि उड़ न सकूँगा
जो उसने बुलया तो मैं उड़ के आया हूँ

एक डायरी मे रख कर, उसने मुझे गुलाब कर दिया
खोला जो किसी ने तो फूल से झड़ के आया हूँ

मैं एक सूखी  हुई पंखुरी हूँ, तो क्या हुआ, मुझे होंठों से लगा लो
कसम खुदा की मैं खुद को मोहब्बत से मढ़ के आया हूँ

एक हरा -भरा दरख्त था मैं किसी जमाने में
किसी ने मेरी छाँव यूं खींची कि  उखाड़ के आया हूँ

यूं तो कोई गरज न थी मुझे तुम्हारी महफिल मे आने की
पर क्या करू मैं तुम्हारी मोहब्बत मे पड़ के आया हूँ

तुमहरा--अनंत 

बुधवार, मई 02, 2012

कीमत..............

मेरे मकान पर पत्थर न मारो,
काँच की दीवार है, टूट जाएंगी,
कल छूटनी होगी जो गाड़ी साँसों की,
वो आज ही झटके से झूट जाएगी,
बड़ी तुनकमिजाज़ है शाम मेरी,
मत सताओ इसे ये रूठ जाएगी,
भरी है आँख की गगरी गम-ओ-अश्क से,
जरा आहिस्ते से छुओ इसे ये फूट  जाएगी,
मैं न रहूगा कल और न मेरी आवाज़ होगी
बस मेरी याद तेरे  दिल के कोने में सुगबुगायगी,
जताता हूँ मैं जो आज कीमत अपनी,
कल अपने आप तू खुद-ब-खुद समझ जाएगी,

तुमहरा --अनंत
  

मंगलवार, मई 01, 2012

हम शायरों की शायरी

नजाकत से पढ़ी जाए, नफासत से पढ़ी जाए
हम शायरों की शायरी,  शराफत से पढ़ी जाए

बगावत कर रही है मेरी नज़्म-ओ-गज़ल यारों
पसीने की ग़ज़ल को रुपयों में न तोला जाए

उनकी आँखों मे नमी है जिनके चूल्हे ठंडे हैं
चलो थोड़ी हमदर्दी की तपिश की जाए

चेहरों पर चस्पे हैं यहाँ कई-कई  चेहरे 
फरेबी चेहरों के असल चेहरे की नुमाईस की जाए

नेकी की राह पर बदी के खिलाफ
चलो साथ मिल कर लड़ाई की जाए

मौत पूछे जब किसे दूं पहले शहादत 
हर एक बन्दे की तरफ से पहल फरमाइश की जाए 

तुम्हारा --अनंत 

ग़ज़ल बन जाती है,

जब बैठता  कलम ले कर तेरी याद आती है,
मिलती है  कलम कागज़ से ग़ज़ल  बन  जाती है,
तेरी आँखों के सूरमे पर लिखता हूँ पहले,
फिर तेरी घटाओं जैसे बाल पर नज़र जाती है,
तेरे माथे का नूर पीता हूँ प्यासे की तरह,
फिर कलम रेंग कर  जिगर में उतर जाती है,
तेरे बदन पर फैली बर्फ की उजली चमक से,
 मेरी और कलम की आँख चौंधिया जाती है,
उतरता हूँ जब मैं तेरी नसों में अहिस्ते से,
एक कुआंरी अनछुई  लड़की की आवाज आती है,
बहता हूँ घडी दो घडी तेरे लहू  में घुल कर,
तेरे जिगर की धडकनों से मेरे दिल की फ़रियाद आती है,
बैठता हूँ कलम ले कर ग़ज़ल बन जाती है,
मिलती है कलम कागज़ से ग़ज़ल बन जाती है,

तुम्हारा--अनंत

रविवार, अप्रैल 29, 2012

आग की गली

आग की गली में बेफिक्र पागल
एक बूँद टहलती है फकीरों की तरह

जिसने महसूस की गरीबों की बिस्तर की चुभन
वो कहाँ  सो सका  है वजीरों की तरह

मोहब्बत हो गयी बगावत से, बागी हो गए थे जो
बाँधा था कफ़न सर पर सेहरों की तरह

जिन्हें पसंद है रेंग कर जीना जी रहे है वो
लड़े जो जुल्म से यारों मर गए शेरों की तरह

याद में उनकी जब कभी  चराग जलाता हूँ
सिर पर कोई हाँथ फेर देता है,  बुजुर्गों की तरह

महफूज हूँ मैं उनके सायों के तले
वो मुझे घेरे हुए हैं दीवारों की तरह

तुम्हारा-अनंत   
   
आग की गली में बेफिक्र पागल,
एक बूँद टहलती है फकीरों की तरह,
जिसने महसूस की गरीबों की बिस्तर की चुभन,
वो कहाँ  सो सका  है वजीरों की तरह,
मोहब्बत हो गयी बगावत से, बागी हो गए थे जो,
बाँधा था कफ़न सर पर सेहरों की तरह,
जिन्हें पसंद है रेंग कर जीना जी रहे है वो,
लड़े जो जुल्म से यारों मर गए शेरों की तरह,
याद में उनकी जब कभी  चराग जलाता हूँ,
सिर पर कोई हाँथ फेर देता है,  बुजुर्गों की तरह,
महफूज हूँ मैं उनके सायों के तले,
वो मुझे घेरे हुए हैं दीवारों की तरह,

तुम्हारा-अनंत   
   

तू मुझे नज़र आती है


aमेरे हर ख़्वाब में, तू मुझे नज़र आती है ,
एक पल हाँथ में होती है, दुसरे पर बिखर जाती है,
तड़पता हूँ मैं, रेगिस्तान में पड़ी मछली की तरह,
देखता हूँ तुझको तो तबियत संवर जाती है,
तेरा मुझको देखना भी हरारत भरी छुवन है,
तू देखती है जब नस-नस सिहर जाती है,
मैं चुरा लेता हूँ आँख, तुझे देख कर न जाने क्यों,
और तू भी मुझे देख कर यूँ ही गुज़र जाती है,
याद आती नहीं तुझको इस आवारा शायर की,
या फिर याद करती है और धीरे से बिसर जाती है,
तू साहिल है बेशक ठुकरा दे मुझे,मैं फिर आऊंगा,
लहर हूँ मैं, और लहर ही साहिल से करीब जाती है


तुम्हारा --अनंत   

गुरुवार, मार्च 29, 2012

कुछ अलग हो तो लगे, जिंदगी  जिन्दा है अभी,
कभी तो आए यहाँ, इतवार- सोमवार के बाद,
दम की दरकार है बहुत, बड़ा हौसला चाहिए,
कुछ नहीं बचता है दोस्त! बाज़ार के बाद,
उसकी लुटी अस्मत एक खबर ही तो है ,
कोई कुछ नहीं बोलेगा, अखबार के बाद ,
कोई कितना भी कायर हो वो लड़ जायेगा,
खून खौल उठता है, एक ललकार के बाद,
बड़ा नादाँ था मैं, जो न ये फ़लसफ़ा समझा,
फकत इंतज़ार ही मिलता है, इंतज़ार के बाद,
और भी जीत है  ''अनंत'' एक हार के बाद,
जिंदगी उठ खड़ी होती है हर वार के बाद,

तुम्हारा--अनंत

बुधवार, फ़रवरी 22, 2012

गला रुंधा हुआ हैं....

गला रुंधा हुआ हैं, आवाज़ दर्द में नहाई  हुई है,
मुझे बस इतना कहना है कि मेरे साथ बेवफाई हुई है,
आफसोस करूँ भी तो क्या करूँ, खाख-ए-दिल पर,
ये  आग-ए-मोहब्बत हमारी ही लगाईं हुई है,
उदास क्यों हूँ मैं, हर कोई मुझसे पूछता है,
इस उदासी के पीछे मैंने एक बात छिपाई हुई है,
बेफिकर हो जाए वो, जिसने मेरा दिल तोड़ा है,
मैंने उसका नाम न लेने की, कसम खाई हुई है,
जिस दिन  कहा उसने, हमें भूल जाओ ''अनंत''
बस उसी दिन से वो मेरे वास्ते पराई हुई है,
चलने दो मुझे वक़्त हो चला है, चलता हूँ मैं,
मुझे लेने को वो मुन्तजिर मौत आई हुई है ,

तुम्हारा-- अनंत

भूल गए.......

जिस्म मिला परिंदे का और हम उड़ना ही भूल गए,
जो करने आये थे यार यहाँ वो करना ही भूल गए,
सोचा था कह देंगे उसके मुंह पर, वो जुल्मी हैं,
पर देखा जब उसको तो कुछ कहना ही भूल गए,
पहले तो सह जाते थे, हम दर्द हिमालय के जितना,
पर अब कंकड़ जितना भी, हम गम सहना ही भूल गए,
हुआ करार था ये कि वो हमें छुएगा और हम ढह जायेंगे,
उसने छुआ सौ-सौ बार हमें, और हम ढहना ही भूल गए ,
सहरा पर खड़े मुन्तज़िर थे, और हम दरिया सा बहने वाले थे,
हम कुछ यूँ उलझे अपने में ही कि हम बहना ही भूल गए, 
नीड़ का तिनका-तिनका जोड़ा, और सारा जीवन बीत गया,
वक़्त जो आया रहने का, तो हम रहना ही भूल गए ,

तुम्हारा-- अनंत 


सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

वो अरमान हैं मेरा ......

वो अरमान हैं मेरा जो मेरी आँखों में चमका,
ये अँधेरी राहों में कर देता है उजियारे,
खार चुभते हैं जब जब दर्द लिख देता हूँ,
लोग पढ़ते  हैं उसे समझते हैं गीत हमारे,
मायूसी में भी मायूस होने नहीं देता हौसला मेरा,
आँख बंद करता हूँ दिखा देता है मंजिल के नज़ारे,
लड़ाई जारी है बचपन से ही मेरी और परेशानियों की,
लड़े जिस्म-ओ-जाँ से दोनों, न वो हारी न हम हारे,
बस इतना कहते हैं की मंजिल तक पहुँच ही जाएँगे,
ठीक वैसे ही जैसे पहुँचती  हैं, लहर समंदर के किनारे,
गम-ओ-दर्द से लैस जिएँ तनहा, तो भी कोई गम नहीं,
चाह इतनी कि मरने के बाद भी न लोग हमकों बिसारे,

तुम्हारा--अनंत


चाहता हूँ दो घडी बैठूं सुकून से ......

चाहता हूँ मैं भी दो घडी बैठूं सुकून से,
पर क्या करूँ मोहलत नहीं मिलती जूनून से,
दौड़ता हूँ दिन-रात ख्व्बों के पीछे इस कदर,
कि पाँव मेरे सन गए हैं, मेरे खुद के खून से,
शहर की महफ़िलों में मुझे सिर्फ तन्हाई मिली,
कितना दूर चला आया हूँ, मैं अपने गाँव कि धूम से,
दूर से देखा था तो लगा, कि ये भीड़ काफी अच्छी है,
पर अब तंग आ चूका हूँ इस मशीनी हुजूम से,
लिए फिरते हैं दुनिया की  दौलत-ओ-शोहरत साथ अपने,
फिर भी लगते हैं ये लोग कितने महरूम से,
पढ़े लिखे इंसानों में एक मशीन पनप आई है,
एक मुद्दत से नहीं मिलें हैं,कहीं इंसान मासूम से,

तुम्हारा --अनंत





जब तुम याद आए....

छलकी बूँदें आँखों से, जब तुम याद आए,
आह!  भरी हमने, जब तुम याद आए,
महकीं यादों की गीली माटी रातों में,
बहकी हसरत मेरी,जब तुम याद आए,
बुलंद शोलों से झुलसे,चैन-ओ-सुकून के दरखत,
रात जग कर बिता दी हमने, जब तुम याद आए,
जा रहे थे दर-ए-खुदा,  इबादत के वास्ते,
कदम मुड़ गए मैखाने की ओर, जब तुम याद आए,
तेरे एहसास के दस्तक ने, हमें कुछ ऐसा बदला,
हम, हम न रहे यार, जब तुम याद आए,
दीवानों की तरह बेसबब गुजरे तेरी गली से,
दुनिया हँसी हम पर, जब तुम याद आए,


तुम्हारा--अनंत

बुधवार, फ़रवरी 15, 2012

ऐ जिन्दगी जरा अहिस्ते चल...

ऐ जिन्दगी जरा अहिस्ते चल,
कहीं दौड़ते-दौड़ते न दम निकल जाए,
सुकूँ  की तलाश चैन की चाहत में,
हम ये कहाँ बदहवासों के शहर चले आए,
सादगी खतरे में है हमारी,
डर है हमें कहीं हम भी न बदल जाएँ,
खतरनाक है सुबह यहाँ की शाम ज़ालिम है,
ये आदमखोर चौराहे,कहीं हमें भी न निगल जाएँ,
गर्मी तेज हैं यहाँ दौलत की, इंसान पिघलते हैं,
कहीं ऐसा न हो कि मेरे भीतर का भी आदमी पिघल जाए,
हर कोई डंक मरता है यहाँ सांप और बिछुओं की तरह,
बात करता नहीं कोई ऐसी कि दिल ये बहल जाए,
बड़ी ताजीब-ओ-सलीके से जीते है लोग यहाँ,
कभी उनका दिल नहीं करता कि बच्चों सा मचल जाएँ,
लौट आए हैं हम गाँव की झोपडी में ''अनंत'',
बड़ा मुश्किल है कि फिर लौट के शहर के महल जाएँ


तुम्हारा--अनंत