रविवार, मई 15, 2011

पत्थर का शहर

चलो अँधेरा करो यारों कि अब उजालों से डर लगता है ,
कदम -दो - कदम चलना भी अब सफ़र लगता है ,
न करो रहमत , न हम पर रहम करो तुम ,
तुम्हारा रहम-ओ-करम ,अब हमें कहर लगता है ,
टुकड़े-टुकड़े में बँटी है ,जीते नहीं बनती ,
जिन्दगी का हर एक टुकड़ा कम्बख़त ज़हर लगता है ,
हम तो कांच के थे ,यहाँ आ कर फूट गए ,
ये तेरा शहर हमे ,पत्थर का शहर लगता है ,
जिसकी खबर में हम दुनियाँ कि खबर भूल गए ,
वो ख़बरदार मेरी खबर से बिलकुल बेख़बर लगता है ,
जो एक कदम भी न चला सफ़र में साथ ''अनंत ''
न जाने किसलिए  वो हमे  हमसफ़र लगता है , 

तुम्हारा -- अनंत 

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