रविवार, मार्च 13, 2011

जिश्म पे घाव

तुम्हारा मुरझाया हुआ चेहरा ,तुम्हारी कहानी है ,
तुम्हारी आँखों में आँसूं नहीं, गंगा का पानी है ,
अपने जिश्म  पे घाव बड़े चाव से ढो रहे हो तुम ,
तुम कुछ कहते क्यों नहीं , मुझे बड़ी हैरानी है ,
गद्दार दरख्तों के साये में  बैठना गद्दारी है ,
बेमन हवाओं में सांस लेना ,बेमानी है ,
ये वक़्त नमाज़  का वक़्त है शायद ,
तभी तो सड़कें इतनी वीरानी है ,
जो बात अब तक अनकही थी अनसुनी थी ,
तुम सुनो न सुनों ,हमें तो सुनानी है ,
तुम्हारा --अनंत 

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